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मातृत्व - Motherhood


मेरी माताजी ललिता देवी। जिनका जन्म मुकुन्दा नामक एक छोटे से गांव में वर्ष 1979 में हुआ था। उनकी दो बहनें और छ: भाई थे। बचपन के समय। ललिता विद्यालय जा रही थीं। उनकी नजर खोमा नामक एक लड़की पर पड़ी। खोमा के पिताजी बी.सी.सी.एल में कार्यरत थे। उनकी अच्छी सैलरी थी। खोमा हर दिन अलग - अलग कपड़े और चप्पलें पहनकर विद्यालय जाया करती थी। ललिता को उसके ढाट-बाट देखकर आश्चर्य होता था। ललिता अपने भाई - बहनों के साथ खेल खेलती, त्योहार मनाती। कुछ वर्षों तक पढ़ाई करने के बाद ललिता ने पढ़ाई छोड़ दी। वह छट्ठी या सातवीं कक्षा तक पढ़ चुकी थी। वे अब घर के ही कार्य में लगी रहती। कुछ वर्षों बाद। जब वे शादी लायक हो गई। उनके माता-पिता ने उनकी शादी शंकर नामक व्यक्ति से कर दी। घर की आमदनी अच्छी खासी नहीं थी। शंकर जी के पिता कुछ दिन काम पर जाते थे, बाकि दिन शराब के नशे में टुन रहते थे। शंकर जी कोयले बेचने का कार्य करते थे। लगभग एक वर्ष बाद उन्हें एक बेटा हुआ। परंतु कुछ वर्षों बाद पीलिया रोग से ग्रस्त होने के कारण वह बच्चा बच न सका। इससे ललिता जी का मन उदास हो गया। दुसरी बार जब उनका बच्चा पैदा हुआ। वह गंभीर हालत में था। डॉक्टरों ने उसे बचाने की कोशिश की परंतु वह भी बच न सका। फिर से ललिता जी का मन उदासी से भर गया। माता-पिता के आंखों से आंसू छलक आए। परिवार के दुसरे सदस्यों ने सलाह दी कि इस मृत बच्चे को ब्रिज के नीचे नदी के थोड़ी दुरी पर दफाना दिया जाए। उस मृत बच्चे को दफना दिया गया। उसके बाद फिर तीसरे बच्चे का जन्म हुआ। इस बार लड़की पैदा हुई। घर में खुशियों की लहर दोड़ी। उस समय ललिता जी के पांच नंनद थे। उनमें से कुछ की शादी हो गई थी। परंतु जिनकी शादी हुई थी। वे पति के घर कम रहती थी और कई महीनों और सालों तक मायके में ही पड़ी रहती थीं। क्योंकि यहां उन्हें उतना काम नहीं करना पड़ता था। साथ ही उनके बच्चे भी उनके साथ रहते थे। ललिता जी को अधिक काम करना पड़ता था। नंनदें काम कम और आराम ज्यादा करती थी। एक दिन उनकी बेटी राशन दुकान पर बिस्कुट लेने गई। उसके पास रूपए नहीं थे। इसलिए उसने राशन वाले से एक पचास पैसे (अठन्नी) वाली बिस्कुट उधार में मांगी। परंतु उस राशन वाले ने मना कर दिया और उसे वहां से भगा दिया। वह रोती हुई अपने मां के पास पहुंची। तब उसकी मां ने उसे बिस्कुट खरीद दिया। लगभग एक या दो वर्ष बाद चौथे बच्चे का जन्म हुआ। परंतु उस बच्चे की हालत भी गंभीर थी। डॉक्टरों के इलाज के बाद उस बच्चे की हालत कुछ सुधरी। कुछ सप्ताह बाद डॉक्टरों ने दवाईयां लिखकर दी और सलाह दी कि इस बच्चे को बल्ब की रोशनी के सामने रखें। उस समय चन्दाहा गांव में बिजली तो नहीं थी। इसलिए उन्होंने उस बच्चे को सबसे बड़ी नंनद के घर ले जाने का फैसला किया। बड़ी नंनद अपनी ससुराल में रहती थी। जो धनबाद जिले में स्थित था। उनके पति बी सी सी एल में कार्य करते थे और उनके घर बिजली थी। लगभग एक या डेढ़ महीनें उस बच्चे को बड़ी नंनद के घर रखा गया। पिता कभी कभार उसे मिलने आया करते। कई बार ललिता जी अपने पति के साथ बच्चे को डॉक्टर के पास दिखाने जाती। जब वह बच्चा स्वस्थ हो गया तो उसे घर लाया गया। कुछ महीने बीत गए। ललिता जी के पति कोयले और मछली बेचने का काम छोड़कर अपने इकट्ठे किए हुए रूपयों से एक हार्डवेयर की दुकान शुरू की। लगभग पांच वर्ष बाद ललिता जी को पांचवां बच्चा हुआ। उस बच्चे को गंभीर बीमारी तो नहीं हुई। परंतु बचपन में, उसे कान में कई बार दर्द होने लगता। जिसकी वजह से वह जोर जोर से रोने लगता। शंकर जी बच्चे को गोद में उठाकर उसे चूप कराने की कोशिश करते। बच्चे की रोने की आवाज सुनकर, मां का मन भी रोने जैसा हो जाता। डॉक्टर से इलाज कराने के बाद कुछ महीने में उसके कान का दर्द ठीक हो जाता है। लगभग दो वर्ष बाद छट्ठे बच्चे का जन्म होता है। उसे भी कोई गंभीर बीमारी तो नहीं थी‌। परंतु पैचीस नामक बीमारी ने कुछ परेशान किया। जो आगे जाकर ठीक हो गई। वह छट्ठा बच्चा जब सात या आठ वर्ष का था। उस समय जब उसकी मां उसके पास खाना ला देती तो कई बार वह झूठ बोलकर , अपनी मां को अपने पिता से डांट खिला देता। फिर भी मां उस बच्चे को माफ कर देती। जब उनकी बेटी शादी के लायक हो गई तो धूम धाम से उसकी शादी कर दी गई। कुछ वर्षों बाद छट्ठा लड़का मानसिक रूप से बीमार हो गया। कई तांत्रिकों और डॉक्टर को दिखाया गया। परंतु ठीक न हुआ। इससे माता-पिता की चिंता और बढ़ गई। परंतु कुछ वर्षों बाद वह मानसिक रूपी बीमारी से बाहर निकल गया। बेटी की शादी के लगभग सात वर्ष बाद ही कोराना की बीमारी के भय से उसके पति ने आत्महत्या कर ली। वह बेटी अब विधवा हो चुकी थी। ललिता जी और उनके परिवार वाले रोने लगे। उधर ससुराल में मौजूद बेटी को सदमा सा लगा। उसके दो बच्चे थे। उसे अंदर से यह चिंता खाएं जा रही थी कि वह अपने छोटे बच्चों का पालन पोषन कैसे करेगी। इस घटना के बाद अनायास ही कई बार अपनी बेटी और उसके बच्चों के बारे में सोचकर माता-पिता के आंखों में आंसू झलक आते। मन उदासीन हो जाता। परंतु माता-पिता ने अपनी बेटी का भरपूर साथ दिया।‌ उनकी बेटी कई महीनों तक अपने मायके में रही। उसके बाद वह ससुराल चली गई। 

लघु कहानीकार
पंकज मोदक

My mother Lalita Devi. Who was born in the year 1979 in a small village named Mukunda. He had two sisters and six brothers. During childhood. Lalita was going to school. His eyes fell on a girl named Khoma. Khoma's father was working in BCCL. He had a good salary. Khoma used to go to school wearing different clothes and slippers every day. Lalita was surprised to see his physique. Lalita used to play games and celebrate festivals with her brothers and sisters. After studying for a few years, Lalita left her studies. She had studied till sixth or seventh class. Now she remained busy in household work only. After a few years. When they became marriageable. Her parents married her to a man named Shankar. The household income was not good enough. Shankar ji's father used to go to work for some days, and remained drunk the rest of the days. Shankar ji used to sell coal. After about a year they had a son. But after a few years, the child could not survive due to suffering from jaundice. Due to this Lalita ji felt sad. The second time their child was born. He was in critical condition. Doctors tried to save him but he too could not survive. Again Lalita ji's mind was filled with sadness. Tears welled up in the eyes of the parents. Other family members suggested that the dead child be buried a short distance from the river, under the bridge. That dead child was buried. After that a third child was born. This time a girl was born. A wave of happiness ran through the house. At that time Lalita ji had five sisters-in-law. Some of them were married. But those who were married. She lived less at her husband's house and stayed in her maternal home for many months and years. Because here they did not have to do that much work. Besides, his children also lived with him. Lalita ji had to work more. Sister-in-law used to work less and rest more. One day his daughter went to the ration shop to buy biscuits. He did not have money. Therefore, he borrowed a biscuit worth fifty paise (eighteenth) from the ration seller. But the ration seller refused and chased him away from there. Crying, she reached her mother. Then his mother bought him biscuits. About a year or two later the fourth child was born. But the condition of that child was also serious. After treatment by doctors, the child's condition improved somewhat. After a few weeks, the doctors prescribed medicines and advised to keep the child in front of bulb light. At that time there was no electricity in Chandaha village. So they decided to take the child to their eldest sister-in-law's house. Elder sister-in-law lived in her in-laws' house. Which was situated in Dhanbad district. Her husband worked in BCCL and their house had electricity. The child was kept at his elder sister-in-law's house for about one or one and a half months. Father would come to meet him occasionally. Many times Lalita ji would go with her husband to take the child to the doctor. When the child became healthy he was brought home. A few months passed. Lalita ji's husband left the job of selling coal and fish and started a hardware shop with the money he collected. After about five years, Lalita ji had her fifth child. That child did not suffer from serious illness. But during his childhood, he would often suffer from ear pain. Because of which he started crying loudly. Shankar ji would pick the child up in his lap and try to make him quiet. Hearing the crying sound of the child, the mother also feels like crying. After getting treatment from the doctor, his ear pain gets cured in a few months. After about two years the sixth child is born. He too did not have any serious illness. But a disease called patches caused some trouble. Which later got better. He was the sixth child when he was seven or eight years old. At that time, when his mother would bring him food, he would often lie to his mother and get scolded by his father. Still the mother would forgive that child. When his daughter became marriageable, she was married with great pomp and show. After a few years the sixth boy became mentally ill. Was consulted to many Tantrikas and doctors. But it did not go well. This further increased the worry of the parents. But after a few years he came out of mental illness. Almost seven years after the daughter's marriage, her husband committed suicide due to fear of Corona disease. That daughter was now a widow. Lalita ji and her family started crying. On the other hand, the daughter present in the in-laws' house felt shocked. He had two children. She was worried from within as to how she would take care of her young children. After this incident, many times the parents would suddenly have tears in their eyes thinking about their daughter and her children. The mind becomes indifferent. But the parents fully supported their daughter. Their daughter stayed in her maternal home for several months. After that she went to her in-laws house.

Short story writer
Pankaj Modak

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अनजान गांव - Unknown Village

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